बाबा रे बाबा•••

मैं बाबा रामरहीम को नही जानता और न ही जानना चाहता हूं। उसने किसी महिला के साथ बलात्कार किया है या नही इसकी सत्यता भी मैं नही जानना चाहता हूं। हालांकि वह न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित कर दिये गये है लेकिन मुझे इससे भी कोई फर्क नही पड़ रहा है। मैं अभी आश्चर्यजनक रूप से, अपने को बाबा रामरहीम के साथ पाता हूँ।

मैं आज सत्य असत्य, न्याय अन्याय दोनो के ही परे अपने को ऐसी जगह खड़ा पाता हूँ जहां इनके बीच की लकीर ही मिटी हुयी दिख रही है। आज मेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसमे मेरा कोई दोष नही है। यदि है भी तो वह उस अनुभव के कारण है जो भूतकाल में यूपीए के 10 वर्ष कार्यकाल में मिला है जब उनके हिन्दू विरोधी शासन और उसके आगे नाक रगड़ते प्रशासन व न्याय व्यवस्था को देखा है। उसका ही परिणाम यह रहा है की यूपीए के ही कार्यकाल से न्यायलय का न्याय बड़ा सलेक्टिव रहा है। जहां एक तरफ न्यायालय जामा मस्जिद के इमाम, जिस पर 50 से अधिक वारंट है गिरफ्तार कराने की हिम्मत नही कर पाती है, चर्चो पर फ़र्ज़ी तोड़फोड़ साबित होने पर व उनके पादरियों द्वारा बलत्कार की घटनाओं से मुंह मोड़ते दिखती है वही हिन्दू धर्म के बाबाओ, आचार्यो, सन्तो और यहां तक शंकराचार्य तक के विरुद्ध उनका रवैया न सिर्फ नकरात्मक रहा है बल्कि उनका न्याय भी तटस्थ नही रहा है।

जिस तरह से यूपीए काल मे सोनिया गांधी की अगुवाई में क्रिप्टो ईसाइयों और हिंदुत्व विरोधी शक्तियों द्वारा हिंदुत्व के एक एक प्रतीकों और स्तंभो को चोट पहुंचाने के लिये प्रशासकीय और न्याय पालिका का दुरुपयोग किया गया है उससे मेरा मन सत्य और न्याय को लेकर सशंकित है। मेरा मानना है कि आज जो पंचकूला में बाबा समर्थक आगजनी और तोड़फोड़ कर रहे है, उसमें जितना दोष उन लोगो का है उससे ज्यादा दोष न्यायपालिका का है, जिसकी तटस्था पर प्रश्नचिन्ह है क्योंकि हिन्दू समाज को लेकर उसका आचरण सन्दिग्ध रहा है ।

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