ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी

खंडन --

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी।

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सुन्दर काण्ड की इस चौपाई को लेकर तुलसीदास की आलोचना बहुत बार होती रही है। विडंबना यह है कि मानस  के बहुत से ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक प्रसंगों के बावजूद भी हमें उनकी यही चौपाई सब से अधिक दिखती है। इस एक चौपाई की व्याख्या करते समय हम , काल , समय , स्थान और  सन्दर्भ सब भुला बैठते हैं। आज कल की पीढ़ी जो फेसबुक से ज्ञान धारोष्णदुग्ध की तरह पान करती है , शायद ही तुलसी के इस  अमरग्रन्थ को आद्योपांत पढ़ा हो। हाँ  चौपाई  को वे ज़रूर यादरखते हैं और उसी आधार पर  तुलसी का मूल्यांकन भी  करतेहैं।

#इसका_खंडन_करने से पहले एक दोहा उसी संत तुलसीदास रचित रामचरित से देखते है --

“एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“
मतलब पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर तुलसीदास ने दोनों को बराबर एक ही व्रत को पालन करने के लिए कहा है।

#तो_क्या_संत_तुलसीदास_स्त्री_दलित_विरोधी_थे --

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल #तारना के अधिकारी॥

जिसका अर्थ है -- प्रभु ने अच्छा किया, जो मुझे दण्ड दिया। किंतु मर्यादा और जीवों का स्वभाव भी आपने ही बनाए हैं। ढोल, गंवार, सूद्र, पशु और स्त्री ये सब छमा के अधिकारी हैं।

लेकिन विधर्मियो ने अपना ज्ञान घुसेड़ दिया और तारना को ताड़ना कर दिया , ताड़ना का मतलब होता है दंडित करना लेकिन वो एक छोटी सी गलती कर गए उन्होंने ये ध्यान नही दिया कि रामचरितमानस अवधि में लिखी है और अवधि में ताड़ना का मतलब होता है - पहचानना .. परखना या रेकी करना ।

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल #ताड़ना के अधिकारी॥

अब विधर्मियो के अनुसार इसका अर्थ जो आपको बताया गया वो है - प्रभु ने अच्छा किया, जो मुझे दण्ड दिया। किंतु मर्यादा और जीवों का स्वभाव भी आपने ही बनाए हैं। ढोल, गंवार, सूद्र, पशु और स्त्री ये सब दण्ड के अधिकारी हैं।

#जबकी सत्य ये है कि --

प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और, सही रास्ता दिखाया किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है…!
क्योंकि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा तथा सही ज्ञान के अधिकारी हैं ॥3॥

#अर्थात -- ढोल (एक साज), गंवार(मूर्ख), शूद्र (कर्मचारी), पशु (चाहे जंगली हो या पालतू) और नारी (स्त्री/पत्नी), इन सब को साधना अथवा सिखाना पड़ता है.. और निर्देशित करना पड़ता है…. तथा विशेष ध्यान रखना पड़ता है ॥

#विशेष --
जब भी  कोई रचना कार कोई उपन्यास , कहानी या महाकाव्य रचता है तो वह उनके पात्रों का सृजन करता है। निश्चित रूप से साहित्यकार  के  विचारों का वहन ,  उस साहित्यकार की कृति करती है पर यह बिलकुल आवश्यक नहीं  है कि, हर पात्र का बोला हुआ संवाद ही  साहित्यकार का विचार हो।महाकाव्यों का  नायक ही मूलतः साहित्यकार के  विचारों का प्रेषण करता है। अगर साहित्यकार अपने हर पात्र , नायक याखलनायक के मुंह से निकले हर संवाद  में अपना विचार सम्प्रेषित करने लगेगा तो कोई भी कृति कभी भी रची नहीं जा सकेगी। यहाँ भी यह समुद्र का कथन है , राम , लक्षमण , या हनुमान का नहीं जिसे साहित्यकार का अपना विचार मान लिया जाय।  समुद्र , भयवश सामने आता है,  गिड़गिड़ाता है , खुद को  चौपाई  अनुसार , गंवार यानी मूर्ख , या शूद्र कहते हुए समझाने (सुधरने) योग्य ही बताता है। अतः मेरे अनुसार यह विचार तुलसी की आत्म धारणा नहीं कही  जा सकती  है।

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