गृहस्थ आश्रम

मनुष्य की उम्र औसतन सौ साल मानी गई है। इस हिसाब से जीवन को चार भागों में बांटा गया है। उम्र के पहले 25 वर्ष को शरीर, मन और बुद्धि के विकास के लिए निर्धारित किया गया है। इस काल में मनुष्य धर्म और अर्थ की शिक्षा लेता है। दूसरा गृहस्थ आश्रम माना गया है। गृहस्थ जीवन में व्यक्ति सभी तरह के भोगों को भोगकर परिपक्व हो जाता है। गृहस्थ जीवन में व्यक्ति अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है। गृहस्थ एक ऐसा जीवन है, जिसे मनुष्य यदि प्रकृति के नियमों के अनुसार जिए तो वह पूरी दुनिया बदल सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संपूर्ण मानव समाज का मूल आधार गृहस्थ जीवन ही है। अगर किसी भी तरह से गृहस्थ जीवन में गलतियां हो गईं तो मनुष्य का बाकी जीवन नर्क बन जाता है। गृहस्थ आश्रम में मनुष्य का वैवाहिक जीवन अति महत्वपूर्ण है। वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी के बीच समर्पण भाव का होना बहुत जरूरी है। यानी केवल अपनी सुख-सुविधाओं का नहीं, बल्कि जीवनसाथी के सुख-दुख को महत्व देना चाहिए। जब पति-पत्नी के बीच समर्पण भाव में कमी आती है तो उनके बीच प्रेम खत्म हो जाता है। इस स्थिति में पति खुद को तो पत्नी अपने आपको श्रेष्ठ समझने लगती है। इसका नतीजा यह होता है कि दोनों के बीच दरार उत्पन्न हो जाती है। जरा-जरा सी बातों में उलझना और अशांति उत्पन्न करने से इसका जीवन में गलत प्रभाव पड़ता है। छोटी गलतियां बड़ी समस्या बन जाती हैं और कई बार बात तलाक तक पहुंच जाती है, जबकि दोनों के बीच होना यह चाहिए कि यदि पति को कोई समस्या है तो पत्नी उसका साथ दे। यदि पत्नी को कोई समस्या है तो पति उसका साथ दे। दोनों सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ निभाएं। जिन रिश्तों में ऐसा तालमेल होता है उनके बीच कभी तनाव नहीं होता। रामायण के माध्यम से राम और सीता का एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव दर्शाया गया है। समर्पण की इसी भावना की वजह से राम और सीता का वैवाहिक जीवन आदर्श माना गया है। वर्तमान में ज्यादातर वैवाहिक रिश्तों में इसके ठीक विपरीत हो रहा है। पति और पत्नी एक-दूसरे से समर्पण भाव की उम्मीद तो करते हैं, लेकिन स्वयं समर्पण के लिए तैयार नहीं हैं। गृहस्थ जीवन सफल बनाने का सूत्र है कि यदि आप अपने जीवनसाथी से समर्पण भाव चाहते हैं तो पहले स्वयं समर्पित होइए। 
संजय महर्षि

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